गजल
सदभाव बचाने निकला हूं
छुपे चेहरों की पहचान बताने निकला हूं |
रिसते जख्मों पर मैं मल्हम लगाने निकला हूं |
दुखों की आहट सुनकर व्यथित न होना कोई
इसलिए पीड़ा को गीत बना गाने निकला हूं |
भेड़ियों के आतंक से डरे हुए हैं लोग सभी
मै बेफ़िक्र सोते सिंहो को जगाने निकला हूं |
शिष्य भी महफूज नहीं गुरुओं के आवास में
ऐसे चेहरों से नकाब हटाने निकला हूं |
बस्ती-बस्ती आग लगा दी सियासतदारों ने
अब तो बचा-खुचा सदभाव बचाने निकला हूं |
हर नया दिन भोजन की थाली छोटी कर देता
लेकर भूखा पेट भजन सुनाने निकला हूं |
सारे शहर में मरघट सा सन्नाटा पसरा है
मै फिर से उसको जीवन लौटाने निकला हूं |
अरुण अर्णव खरे
सदभाव बचाने निकला हूं
छुपे चेहरों की पहचान बताने निकला हूं |
रिसते जख्मों पर मैं मल्हम लगाने निकला हूं |
दुखों की आहट सुनकर व्यथित न होना कोई
इसलिए पीड़ा को गीत बना गाने निकला हूं |
भेड़ियों के आतंक से डरे हुए हैं लोग सभी
मै बेफ़िक्र सोते सिंहो को जगाने निकला हूं |
शिष्य भी महफूज नहीं गुरुओं के आवास में
ऐसे चेहरों से नकाब हटाने निकला हूं |
बस्ती-बस्ती आग लगा दी सियासतदारों ने
अब तो बचा-खुचा सदभाव बचाने निकला हूं |
हर नया दिन भोजन की थाली छोटी कर देता
लेकर भूखा पेट भजन सुनाने निकला हूं |
सारे शहर में मरघट सा सन्नाटा पसरा है
मै फिर से उसको जीवन लौटाने निकला हूं |
अरुण अर्णव खरे