कहानी, व्यंग्य, कविता, गीत व गजल

Monday, April 15, 2013

बहुत चाहा


बहुत चाहा
तुम्हारी छवि को नयनों से निकालना,
पर दर्पण से प्रतिबिम्ब के अलग होने सा
अनहोना है यह
बार-बार 
इस बात का सत्यापन होता रहा |

बहुत चाहा
तुम्हारे नाम को ह्रदय से निकाल कर
हवा में उछालना
पर चुम्बक से लोहे के विकर्षण सा
असंभव है यह
बार-बार 
इस बात का उदाहरण मिलता रहा |

बहुत चाहा
तुम्हारी यादों को मन से निकालकर
विस्मृति मे सजा देना
पर गुलाब से सुरभि की विमुक्ति जितना ही
अनैसर्गिक है यह
बार-बार
इस तथ्य का प्रतिपादन होता रहा |

अतएव
संभव नहीं हुआ
तुम्हारी छवि को ह्रदय से निकालना
तुम्हारा नाम हवा में उछालना
तुम्हारी यादों को विस्मृति मे सजा पाना
तुम
कोसों दूर रह्कर भी
यहीं कहीं आस पास लगते हो
तुम्हारी सुधियां जब तब
शांत ह्र्दय-सरोवर में कंकर फेंक
लहरों को लहरा देती हैं
मुरझाते गुलाब की पंखुडियों को
फिर से खिला देती हैं
ऐसे ही क्षण तब
अमूल्य धरोहर बन जाते हैं |
और एक एक क्षण में हम
सौ-सौ युगों की जिंदगी जीने का
असीम सुख पाते हैं |

मुझको क्या भय


चुभन को पाले हुए हम अपने पांवों में |
मुझको क्या भय
मैं तो दर्द-दुखों के गुरुकुल का स्नातक हूं |

फूलों से ज्यादा मुझको कांटे भाते हैं |
तट को छोड़ ज्वारों से मेरे नाते हैं |
कितनी बार पा चुका मैं कष्टों में अबतक |
प्रथम श्रेणी प्रथम आने पर स्वर्ण पदक |
दुश्मन को शरण रखे हम अपने गांवों में,
मुझको क्या भय
मैं तो जंजालों वाले रूपक का नायक हूं |

अच्छे लगते हैं महलों से ज्यादा खंडहर |
प्रिए लगते हैं मुझको कोलाहल के स्वर |
कितनी बार कटु अनुभवों में बुना गया मैं |
समूचे विध्यालय का प्रतिनिधि चुना गया मैं |
मंजिल सदा तलाशी है पथरीली राहों में,
मुझको क्या भय
मैं पतझरी गीतों का सच्चा गायक हूं |

Friday, April 5, 2013

पहली नजर में प्यार का ...